प्रतिध्वनि के मोल में ,तुम हो विदित संसार जैसे
न्याय में निर्दोष से ,तब चीख के पर्याय कैसे ??
एक निराशा इंगितों में ,नाद करके जा रही थी
शक्ति के संकल्प पथ पर ,पीर वो ही गा रही थी|
वर्जना सी कामनायें ,वो ही जो थी लूप हममें
युगऋचा युगबोध को ,युगधर्म फिर समझा रही थी ।।
अवयवों के व्यय भुलक्कड़ ,से समर्पण भाव में थे
लाख श्रोता भीड़ में ,बस तुम मेरे अधिकार में थे|
गोपनों के हम रचयिता ,नक्श की नक्काश में तुम
मंच पर मुख से जो फूटी,तुम उसी ललकार में थे ।।
हरण की स्याही सँभाले ,जो हुकुम अँगड़ा गई थी
सत्ता तुम्हरी फिर क्यूँ हमसे ,तुमको ही लिखवा रही थी।।
--पूरब "निर्मेय
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