दिए तूने तोहफ़े में ज़ख्म,
तो एतराज कैसा,
थोड़ा सा कुरेदना है,
मलहम उतारना है।
ज़हर जो उतरा है,
तेरे जेहन में रफ़्ता रफ़्ता,
पीना है उसे बेखौफ,
तेरा वहम उतारना है।
बुना गया है जिसे,
तबीयत से इर्द-गिर्द,
तिलिस्म ये तोड़ना है,
वो असर उतारना है।
कब तलक ढोता रहूँ,
जनाज़ा अपने कंधों पे,
अब अपनी लाश से,
ये कफन उतारना है।
तंग आ गया हूँ,
मसखरे सी अदाकारी से,
अब पर्दा गिराना है,
ये नक़ाब उतारना है।
तेरे मुसलसल तकाजे,
और परेशाँ "फागवी"
लिया ही नहीं जो कर्ज़,
एकमुश्त उतारना है।
--Gaurav Pareek 'फागवी'
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