उम्रें गुजर गयी हैं अधूरी दास्तां के साथ,
मिलती है क्या कभी ये जमीं आसमां के साथ|
नजरों में बस गया था बिना नज़र आये ही
आहिस्ता हुए गुम फिर अपने जान-ए-जां के साथ|
जाना किधर है और कहां मंजिल पता नहीं,
चलते ही जा रहे हो फिर भी क्यूँ जहां के साथ|
मुर्दा हैं वे जो बेच चुके हैं अपना ज़मीर,
जिंदा वो हैं जो जी रहे अपनी अना के साथ|
क्यों सहते जा रहे हैं यहाँ जुल्म-ओ-सितम सब,
जज्बात भी सिले हैं क्या सबकी जुबां के साथ|
सब कुछ तो ले गए हो अपनी याद छोड़कर,
लगता ये खुद ही जाएगी अब मेरी जां के साथ|
--Tushar Srivastava
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